एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटNURPHOTO/GETTY IMAGESक्राइस्टचर्च मस्जिद हमले के पीड़ितों की कहानियां दुनिया भर में युद्
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क्राइस्टचर्च मस्जिद हमले के पीड़ितों की कहानियां दुनिया भर में युद्ध, ग़रीबी और आर्थिक असमानताओं के कारण मचे उथल-पुथल का एक आइना है.
कई लोग मानते थे कि उन्हें न्यूज़ीलैंड के रूप में धरती के एक कोने एक ऐसी सुरक्षित जगह मिल गई है जहां वो अपनी ज़िंदगी बिता सकते हैं.
लेकिन ये सब कुछ तब बदल गया, जब एक बंदूकधारी ने अंधाधुंध गोलीबारी की.
उस हमले में बचे मजहरुद्दीन सैयद अहमद कहते हैं, “मैं बहुत खुश था कि मेरे पास अपने बच्चों के पालन के एक खूबसूरत देश था. मुझे दुख होता है.”
उस एक हफ़्ते में 50 लोगों की मौत के बाद, क्राइस्टचर्च ने एकता का मजबूत संदेश दिया.
इस हमले ने यहां के भिन्न और जटिल समुदाय को लेकर बहुत से लोगों की आंखें खोल दीं, जिन पर उनका कभी बहुत ध्यान हीं गया था.
लेकिन यह ये भी याद दिलाता है कि कितनी आसानी से नफ़रत फ़ैलता है और विस्फोटक रूप धारण कर लेता है.
और जुमे की नमाज़ में शामिल लोगों की कहानियों पर बारीक़ निगाह डालने से पता चलता है कि उनका जीवन पहले से ही कितने नाजुक दौर में रहा था.
यहां हम उस हमले में मारे गए कम-से-कम सात भारतीय पीड़ितों में से कुछ की कहानियां बता रहे हैं.
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इमेज कॉपीरइटFAMILY HANDOUTImage caption अनीस अलीबाव 'यहां आने का उसका सपना पूरा हुआ था'
कई मायनों में 24 वर्षीय अनीस अलीबाव का न्यूज़ीलैंड पहुंचने का रास्ता अप्रत्याशित नहीं था.
उनका जन्म केरल के एक ऐसे परिवार में हुआ था जो अमीर नहीं था. सऊदी अरब में उनके पिता की मौत के बाद केवल 18 साल की उम्र में उन्होंने अपने परिवार का भरणपोषण शुरू किया था.
उनके पति अब्दुल नज़ीर कहते हैं कि जब वो पहली बार मिले, तो उन्हें ताज्जुब हुआ कि कैसे वो इतना सब कुछ कर पाती हैं.
यह दंपति एक साल पहले ही भारत से आया था ताकि वो अपनी पढ़ाई और दुनिया घूमने के सपने को पूरा कर सके.
वो कहते हैं कि यह उनका सपना था जो साकार हुआ. वो भी तब जब कर्ज़ के लिए उनके पिता अपने घर को गिरवी रखने पर सहमत हुए ताकि यह जोड़ी न्यूज़ीलैंड जा सके.
पहली बार यह जोड़ी केरल से बाहर निकली थी. क्राइस्टचर्च में नौकरी हासिल करने के बाद वो अपने दोनों परिवारों को भरण पोषण कर रहे थे.
उन्हें अपनी पढ़ाई बेहद प्यारी थी. वो कृषि इंजीनियरिंग में मास्टर्स की डिग्री के लिए क्राइस्टचर्च यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रही थीं. उन्होंने हाल ही में एक इंटर्नशिप शुरू की थी.
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Image caption अब्दुल नज़ीर (बाएं) कहते हैं कि 'उनकी पत्नी के दिल में सभी के लिए प्यार था.'
चचेरे भाई फ़हाद इस्माइल पोन्नाथ नज़ीर को ढाढंस बंधाने उनके कमरे पर पहुंचे थे. नज़ीर उन्हें कैंपस में अनीस अलीबाव के साथ गुज़ारे वक्त की यादों को साझा कर रहे थे.
बीते शुक्रवार को यह जोड़ी हमेशा की तरह अल-नूर मस्जिद गई थी, अंदर दोनों अलग-अलग पुरुष और महिला स्थानों पर थे.
जब गोलीबारी शुरू हुई, नज़ीर जल्दी ही मस्जिद से बाहर निकल कर पास के घर की बाड़ फांदते हुए दूसरी तरफ़ चले गए.
पोन्नाथ कहते हैं, “उस घर के मालिक ने शुरू में यह सोचते हुए कि शायद वह चरमपंथियों में से एक हैं, उन्हें अंदर नहीं आने दिया.”
लेकिन जल्द ही उन्होंने अपनी पत्नी की तलाश में वो जगह छोड़ दी और उन्हें एक गली में सड़क पर बेसुध पाया.
जब वो उनकी ओर बढ़े, उनको पुकारा, तो वहां बचे अन्य लोगों ने उन्हें बताया कि वह मर चुकी है.
जल्द ही पुलिस वहां पहुंच गई, सभी लोगों के साथ उनके पति को भी वहां से हटाने लगी.
अपनी पत्नी के बारे में 34 वर्षीय नज़ीर बताते हैं, “वो एक बहुत प्यारी महिला थीं, बहुत दयालु.”
“वो सभी लोगों से प्यार करती थीं. उन्होंने अपने परिवार के लोगों के प्रति अपने दिमाग में एक बड़ी जगह बना रखी थी. खास कर मेरे, पिता, मेरी मां और मेरे भाई के बारे में.”
नज़ीर असमंजस में हैं कि वो न्यूज़ीलैंड में आगे रहेंगे या नहीं, लेकिन वो अलीबाव के परिवार का ख्याल रखने को लेकर प्रतिबद्ध हैं.
क्योंकि उनके लिए कमाने वाला कोई नहीं बचा.
'मेरा पति- क्या कमाल का व्यक्ति'
बुधवार को मोहम्मद इमरान ख़ान के टेकअवे दुकान इंडिया ग्रिल के बाहर फूलों और श्रद्धांजलियों का तांता लगा हुआ है.
ख़ान की लिनवुड मस्जिद में मौत हो गई थी. दोस्त उन्हें इमरान भाई के नाम से बुलाते थे.
वो भारत से हैं लेकिन क्राइस्टचर्च में खासे लोकप्रिय थे.
उनकी पत्नी ट्रेसी कहती हैं, “मुझे उन लोगों से संदेश मिल रहे हैं जिन्हें मैं जानती तक नहीं हूं, मैं केवल ये कहना चाहती हूं कि वो क्या कमाल के व्यक्ति थे.”
“मैं ये तो जानती थी कि लोग उन्हें चाहते हैं, लेकिन इस हद तक चाहते हैं ये नहीं पता था. लोगों को समय देने और उनकी मदद करने के कारण समूचा समुदाय उन्हें जानता था.”
“अब ट्रेसी अपने छोटे बच्चों की देखभाल के साथ-साथ पति के परिवार की भी देखभाल पर अपना ध्यान लगाना चाहती हैं.”
वो कहती हैं, “ऐसे समय जब ये ख़बर आए जब आप दूर हों और कोई सूचना नहीं मिल पा रही हो तो ये बड़ा मुश्किल वक्त होता है”
पूरी दुनिया से उनके रिश्तेदार उनके यहां पहुंचने लगे हैं.
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Image caption मज़हरुद्दीन सैयद अहमद को ये देश सबसे सुरक्षित लगता था. 'ये देश सुरक्षित जगह है'
अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा भारत में और फिर सउदी अरब में बिता चुके मज़हरुद्दीन सैयद अहमद कहते हैं कि जब वो न्यूज़ीलैंड पहुंचे तो वो बता नहीं सकते कि उन्हें ये देश कितना सुरक्षित और समावेशी लगा.
वो अपने विदेशी दोस्तों को अक्सर बताया करते थे, “एयरपोर्ट जाने में आपकी जान जाती है, लेकिन यहां हम एयरपोर्ट को बेहद पसंद करते हैं. ये बहुत मज़ेदार जगह है, हमारे लिए ये मज़ेदार यात्रा का सबब होता है. क्योंकि ये देश सुरक्षित जगह है.”
सैयद अहमद कहते हैं कि लिनवुड मस्जिद छोटे समुदाय का घर जैसा है.
वो कहते हैं, “हम हर शुक्रवार को नमाज़ पढ़ने वहां जाते हैं.”
जिस देश को वो दुनिया की सबसे बेहतरीन जगह मानते थे, वहां उनके साथ और उनके दोस्तों के साथ जो कुछ हुआ, उस पर उन्हें भरोसा नहीं हो रहा.
इमेज कॉपीरइटEPAImage caption जान की बाज़ी लगाकर हथियारबंद हमलावर को रोकने की कोशिश करने वाले अब्दुल अज़ीज़ की हीरो की तरह सराहना की जा रही है. इस हमले में वो मारे गए थे.
सैयद अहमद कहते हैं कि जब शुक्रवार की नमाज़ के बीच गोलियों की आवाज़ उन्होंने सुनी तो उनका शरीर जम गया.
लोगों ने कुछ देर तक नमाज़ पढ़ना जारी रखा लेकिन उनके कान पूरी तरह इस बात पर लगे रहे कि बाहर कुछ हो रहा है.
वो बताते हैं, “तभी एक आदमी चिल्लाया, छिप जाओ, छिप जाओ, जल्दी, जल्दी.”
गोलियों की आवाज़ सुनने के बावजूद वो मुख्य दरवाजे की ओर भागे, वो नहीं जानते कि उन्होंने ऐसा क्यों किया.
जब हथियारबंद व्यक्ति अंदर आया तो वो दरवाजे के पास स्टोरेज में छिप गए.
उनको लगता है कि वो इसलिए बच गए क्योंकि एक अन्य नमाज़ी अब्दुल अज़ीज़ ने हथियारबंद हमलावर पर क्रेडिट कार्ड की मशीन उछाल दी थी.
सैयद अहम कहते हैं, “लेकिन उसी समय मैंने अपनी आंखों के सामने खूना का एक बड़ा फौव्वारा दीवार पर फैलते देखा. वो वहीं मर गया था.”
इमेज कॉपीरइटReuters'उनकी क्या ग़लती थी?'
अहमदाबाद के मेहबूब खोखर, वड़ोदरा से रमीज़ वोरा और आसिफ़ वोरा भी इस हमले में मारे गए.
दो महीने पहले महबूब और उनकी पत्नी अख़्तर बेगम अपने बेटे इमरान से मिलने न्यूज़ीलैंड गए थे, जोकि कई सालों से वहीं रह रहा था.
महबूब के पड़ोसी बताते हैं, “वो बहुत भले आदमी थे. ”
“उनके परिवार को अभी भी भरोसा नहीं हो रहा है कि वो हादसे में मारे जा चुके हैं.”
वो कहते हैं, “न्यूज़ीलैंड को एक शांतिप्रिय देश माना जाता है, फिर वहां ऐसी घटना कैसे हुई?”
वड़ोदरा में जन्में और पले बढ़े रमीज़ वोरा कई सालों से न्यूज़ीलैंड में ही बस गए थे.
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बीबीसी गुजराती से बात करते हुए आसिफ़ वोरा के बड़े भाई मोहसिन वोरा ने कहा, “रमीज़ की बेटी का जन्म हुआ था, इसलिए आसिफ़ और उनकी पत्नी 14 फ़रवरी को वहां गए थे.”
रमीज़ न्यूज़ीलैंड की एक फ़ैक्टरी में काम करते थे जबकि आसिफ़ वड़ोदरा में बीमा एजेंट थे.
उन्होंने कहा, “हमारे परिवार के सदस्य जा चुके हैं और अगर सरकार अपराधी को सज़ा दे भी देती है तो वो लौटेंगे नहीं. उन्होंने ऐसा क्या किया था कि उन्हें मार दिया गया.”
“हम प्रार्थना कर रहे हैं कि दुनिया में अमन और मोहब्बत क़ायम रहे.”