एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटAlamyइक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक ख़त्म होने को है. आबादी के बोझ से धरती कराह रही है. धरती
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इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक ख़त्म होने को है. आबादी के बोझ से धरती कराह रही है. धरती की आब-ओ-हवा बिगड़ रही है. पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है. प्लास्टिक का कचरा इंसानियत के भविष्य को रौंद रहा है.
ऐसे में इंसान को आने वाली पीढ़ियों को सुरक्षित बनाने के लिए ज़रूरत है चमत्कार की. ऐसा चमत्कार, जो इन चुनौतियों से पार पाने में मदद करे. धरती पर प्रदूषण कम करे. पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाने वाली चीज़ों का बेहतर क़ुदरती विकल्प बने.
अब ये चमत्कार तो क़ुदरत ही कर सकती है. वैज्ञानिकों को लगता है कि प्रकृति ने हमें वो नेमत दे रखी है. ज़रूरत है बस उसके फ़ायदों पर से पर्दा हटाने की.
कनाडा की टोरंटो यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक जिम एंडरसन के पैरों तले एक महादैत्य सो रहा है. ये दैत्य तब से धरती पर है, जब फारस के बादशाह जैक्सिस ने प्राचीन यूनानी राजाओं के ख़िलाफ़ जंग लड़ी थी. ये महादैत्य इतना विशाल है कि तीन ब्लू व्हेलों के वज़न से भी ज़्यादा भारी है. इसकी ख़ुराक़ इतनी है कि ये कई जंगलों को निगल चुका है.
ये विशाल जीव कोई यूनानी पौराणिक किरदार नहीं है. ये है एक मशरूम. जिम एंडरसन जिस जगह खड़े हैं, वो अमरीका के मिशिगन सूबे का जंगली इलाक़ा क्रिस्टल फाल्स है. एंडरसन यहां 30 बरस बाद आए हैं. तीन दशक पहले जब जिम यहां आए थे, तब उन्होंने इस मशरूम की खोज की थी. इसका वैज्ञानिक नाम है आर्मिलैरिया गैलिशिया. ये हनी मशरूम की नस्ल का कुकुरमुत्ता है.
ये मशरूम, अमरीका ही नहीं, एशिया और यूरोप में भी बड़े पैमाने पर पाया जाता है. ये जंगलों में सूख चुकी लकड़ियों-पत्तियों पर उगते हैं. इनकी मदद से जंगलों का कचरा जल्दी से सड़कर ख़त्म होने में मदद मिलती है. अक्सर ये कुकुरमुत्ता ज़मीन से नीचे आशियाना बनाता है. धरती के ऊपर इसके पीली-भूरी छतरियों के आकार वाले डंठल दिखते हैं. ये 10 सेंटीमीटर तक बढ़ जाते हैं.
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इमेज कॉपीरइटGetty Images1500 साल पुराना
जब 1980 के दशक में एंडरसन और उनके साथी पहली बार क्रिस्टल फाल्स आए थे, तो उन्हें लगा कि यहां पर आर्मिलैरिया गैलिशिया की कोई बस्ती आबाद है. लेकिन, उन्हें बाद में एहसास हुआ कि ये मशरूम तो एक ही जीव है जो कई सदियों की उम्र का सफ़र तय करते-करते विशाल दैत्याकार जीव में बदल चुका है.
वैज्ञानिकों का अंदाज़ा है कि मशरूम का ये एक पेड़ 91 एकड़ में फैल चुका है. इसका वज़न 100 टन है. और, ये कम से कम 1500 साल पुराना है. उस वक़्त इसे दुनिया का सबसे पुराना जीव माना गया था. हालांकि बाद में अमरीका के ही ओरेगन के जंगल में मिले मशरूम को दुनिया के सबसे पुराने जीव का दर्जा मिला.
एंडरसन कहते हैं कि, 'जब हमने पहली बार अपने पर्चे में इस मशरूम के बारे में दुनिया को बताया, तो हंगामा मच गया. लोगों को लगा कि हम दुनिया को अप्रैल फूल बना रहे हैं. लेकिन, जब हम 2015 में दोबारा क्रिस्टल फाल आए, तो हमें यक़ीन हो गया कि ये मशरूम असल में एक ही जीव है, जो बढ़कर इतना विशाल हो गया है.'
2015 से 2017 के बीच जिम एंडरसन और उनकी टीम ने कई बार यहां का दौरा किया. मशरूम के डीएनए सैंपल लिए और उसे टोरंटो यूनिवर्सिटी की लैब में ले जाकर परीक्षण किया.
नए प्रयोगों से साफ़ हो गया कि ये जीव उनके अंदाज़े से भी ज़्यादा विशाल है. पिछले 1500 बरसों में ये इतना फैल गया है कि इसका वज़न 400 टन से भी ज़्यादा है.
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इमेज कॉपीरइटAlamyकैंसर से लड़ने में मदद कर सकता है
इस मशरूम के डीएनए की पड़ताल से इंसान को उस चमत्कारिक चीज़ को पाने की उम्मीद जगी है, जिसकी बेसब्री से तलाश है.
ये मशरूम हमें कैंसर से लड़ने में मदद कर सकता है.
कनाडा की रिसर्च टीम ने पाया है कि आर्मिलैरिया गैलिशिया के इतने विशाल होने के बावजूद, इसके नए डंठलों के डीएनए में बेहद मामूली बदलाव ही आया है.
जीवों का विकास तब होता है, जब उनके शरीर की कोशिकाएं एक से दो, दो से चार में विभाजित होती जाती है. बार-बार कोशिकाओं के विभाजन से दो कोशिकाओं के डीएनए में फ़र्क़ आने लगता है. जीवों के उम्रदराज़ होने की यही सबसे बड़ी वजह मानी जाती है.
लेकिन, क्रिस्टल फाल्स के मशरूम की कोशिकाओं के लगातार विभाजन के बावजूद इसके डीएनए में कुछ ख़ास बदलाव नहीं देखा गया. इस मशरूम में क़रीब 10 करोड़ जेनेटिक कोड में से केवल 163 मामूली बदलाव ही पाए गए हैं.
जिम एंडरसन कहते हैं कि मशरूम के विस्तार के लिए करोड़ों कोशिकाओं में विभाजन हुए होंगे. फिर, भी जेनेटिक कोड में बदलाव न आना, एक तरह का चमत्कार ही है.
एंडरसन और उनकी टीम मानती है कि मशरूम के अंदर एक छुपी हुई ताक़त है. इसकी वजह से ही कोशिकाओं के लगातार विभाजन के बावजूद इसके बुनियादी डीएनए में बदलाव नहीं आता. ये राज़ खुलने पर हमारे लिए बहुत काम का साबित हो सकता है.
कई तरह के कैंसर में कोशिकाओं के विभाजन पर हमारे दिमाग़ का कंट्रोल ही नहीं रह जाता. कोशिकाएं बेतरतीब ढंग से फैलती जाती हैं. हमारा शरीर उनके विभाजन को रोक नहीं पाता. इसलिए डीएनए के सीक्वेंस में आए बदलाव को रोकने में नाकाम रहता है.
एंडरसन मानते हैं कि आर्मिलैरिया गैलिशिया के डीएनए में बदलान न होने की वजह जानकर हम कैंसर कोशिकाओं के विस्तार को रोक सकते हैं. इस राज़ के पता चलने से हम उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को भी धीमा कर सकते हैं.
फिलहाल एंडरसन और उनकी टीम ने आर्मिलैरिया गैलिशिया के डीएनए में छुपे इस राज़ का पता लगाने का काम दूसरे वैज्ञानिकों पर छोड़ दिया है.
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इमेज कॉपीरइटMike Dickison/Wikimedia Commonsमशरूम का उपयोग
कुकुरमुत्ते हमारी धरती पर बड़ी तादाद में पाए जाते हैं. इनकी कुल तादाद बाक़ी जीवों को मिला दें, तो उनके बराबर बैठती है. कहा जाता है कि हम अभी तक धरती पर मौजूद इनकी सारी नस्लें भी नहीं खोज पाए हैं. वैज्ञानिकों का अंदाज़ा है कि धरती पर कुकुरमुत्तों की 38 लाख किस्में पायी जाती हैं. इनमें से 90 फ़ीसद के बारे में हमें पता ही नहीं. 2017 में ही वैज्ञानिकों ने मशरूम की 2189 नई प्रजातियां खोजी थीं.
इंसान इनका कई तरह से इस्तेमाल करता है. काग़ज़ बनाने से लेकर दवाएं बनाने तक में मशरूम का प्रयोग हो रहा है. इसके अलावा हिपैटाइटिस बी जैसे ख़तरनाक बीमारियों का टीका बनाने में भी यीस्ट का प्रयोग होता है, जो मशरूम के ख़ानदान का ही सदस्य है.
कुकुरमुत्तों का दवाएं बनाने में सबसे चर्चित इस्तेमाल है पेंसिलिन. इसे घरेलू मशरूम से ही खोजा गया था. इसके अलावा भी आज दर्जनों एंटीबायोटिक दवाएं मशरूम की मदद से तैयार होती हैं.
कुकुरमुत्तों की अलग-अलग नस्लों का इस्तेमाल माइग्रेन से लेकर दिल की बीमारियों के इलाज तक में हो रहा है.
ब्रिटेन के किएव स्थित रॉयल बॉटैनिकल गार्डेन के टॉम प्रेस्कॉट कहते हैं कि, 'कीड़ों के भीतर उगने वाले मशरूम के प्रयोग से भी कई दवाएं बनती हैं. ये कीड़ों के इम्यून सिस्टम पर क़ब्ज़ा कर लेते हैं. ऐसा वो इंसानों की रोग प्रतिरोधक क्षमता के साथ भी कर सकते हैं.'
बहुत से वैज्ञानिक मानते हैं कि अभी हमने मशरूम के और भी बहुत फ़ायदों को तलाशा ही नहीं है.
फिनलैंड की वैज्ञानिक रिक्का लिनाकोस्की कहती हैं कि, 'मशरूम से हमें कई वायरल बीमारियों के इलाज में मदद मिल सकती है. इनसे हमें फ्लू, पोलियो, खसरा और दूसरे तरह के बुखार से लड़ने में सहायता हासिल हो सकती है.'
कई कुकुरमुत्तों में एचआईवी और ज़ीका के वायरस से लड़ने की ताक़त पायी गई है.
लिनाकोस्की कहती हैं कि, 'फंगस में ऐसे बहुत से क़ुदरती तत्व हैं, जो हमें बीमारियों से लड़ने में मदद कर सकते हैं. इनसे भविष्य में एंटीवायरल दवाएं बनायी जा सकेंगी.'
लिनाकोस्की एक ऐसी टीम की सदस्य हैं, जो लैटिन अमरीका के कोलम्बिया में मिलने वाली फफूंद से एंटीवायरल दवाएं विकसित करने में जुटी है. हालांकि अभी ऐसी दवाओं को मान्यता नहीं मिली है.
हालांकि लिनाकोस्की को उम्मीद है कि वो दिन दूर नहीं है. वो कहती हैं कि, 'अक्सर फफूंद बेहद मुश्किल हालात में उगते हैं. उनमें चुनौतियों से लड़कर जीने की अथाव ताक़त होती है. दलदली जंगल हों, या फिर सड़ती हुई लकड़ी, वो हर जगह जी लेते हैं. इनसे धरती का कचरा साफ़ करने में भी मदद मिलती है.'
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इमेज कॉपीरइटTien Huynhप्लास्टिक को खाने वाला फफूंद
वैसे, मशरूम से सिर्फ़ बीमारियों से लड़ने में ही मदद नहीं मिल रही.
पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में एक कचरे के ढेर में उगी फफूंद, हमें प्लास्टिक की चुनौतियों से निजात दिला सकती है. इस फफूंद को क़ायदे आज़म यूनिवर्सिटी की छात्रा फ़रीहा हसन ने खोजा था. इसका नाम है ऐस्परजिलस ट्यूबिजेनेसिस. ये मशरूम बड़ी तेज़ी से पॉलीयूरीथेन प्लास्टिक को खंड-खंड कर सकती है.
पॉलीयूरीथेन प्लास्टिक से कई तरह की चीज़ें बनती हैं. जैसे इलेक्ट्रॉनिक सानाम के केस, फर्नीचर के फ़ोम, रील. ये लंबे वक़्त तक मिट्टी में रहते हैं, तो भी नहीं गलते. लेकिन फ़रीहा ने जो फफूंद खोजी है, वो बडी तेज़ी से इस प्लास्टिक को नष्ट कर देती है और उसे अपना भोजन बना लेती है.
फफूंद को प्लास्टिक का आहार पसंद है. इसलिए वैज्ञानिक बड़ी उम्मीद से इसे प्लास्टिक का कचरा साफ़ करने के चमत्कारी नुस्खे के तौर पर देख रहे हैं.
फफूंद की कई नस्लें समंदर में गिरने वाले तेल को साफ़ करने से लेकर भारी धातुओं से फैलने वाले प्रदूषण तक से निपटने में सहायक सिद्ध हो सकती हैं. इसके अलावा ये कीटनाशकों और रेडियोएक्टिव कचरे के ख़तरे से निपटने में भी मददगार हो सकती हैं.
मशरूम प्लास्टिक का विकल्प भी बन सकते हैं.
कई कंपनियां फफूंद के जाल से पैकेजिंग का मैटीरियल तैयार करती हैं. ये प्लास्टिक का विकल्प बन रहे हैं. इनकी मदद से गोंद भी तैयार किया जा रहा है.
2010 में इवोकेटिव डिज़ाइन नाम की कंपनी ने फफूंद और धान की भूसी की मदद से पैकेजिंग का नया मैटीरियल तैयार करने में सफलता हासिल की थी.
इसके लिए फफूंद को पहले सही आकार में विकसित होने दिया जाता है. फिर गर्मी देकर उनके विकास को रोका जाता है. इससे जो मैटीरियल तैयार होता है. वो क़ुदरती तौर पर ख़ुद ही गल जाता है. इससे प्रदूषण और कचरा भी कम होता है.
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इमेज कॉपीरइटGetty Imagesचमड़े का विकल्प बन रहे हैं फफूंद
डेल जैसी बड़ी कंपनियां भी अब अपने कंप्यूटर की पैकिंग मशरूम से तैयार मैटीरियल से कर रही हैं.
कुछ कंपनियां फफूंद की मदद से चमड़े का विकल्प भी तैयार कर रही हैं. इसके लिए भुट्टे के ऊपर फफूंद को विकसित किया जाता है. और पूरी प्रक्रिया कुछ दिनों में ही पूरी हो जाती है.
स्टेला मैकार्टिनी जैसी कई डिज़ाइनर मशरूम से कपड़े डिज़ाइन कर रही हैं. पिछले ही साल लिज़ सियोकाइलो ने 1970 के दशक की याद के लिए मून बूट को मशरूम की मदद से डिज़ाइन किया था.
इटली की रिसर्चर ऐंथेनैसिया एथानैसियू ने फफूंद से बैंडेज तैयार किया है, जो घाव को तेज़ी से भरने में सहायक होता है. फफूंद को आलू के छिलकों से लेकर लकड़ी के टुकडों तक पर उगाया जा सकता है. इससे कचरा भी साफ़ होता है और हमें इस्तेमाल के लिए नए रेशे भी मिल जाते हैं. जिनसे कई नई चीज़ें तैयार हो रही हैं.
कैलिफ़ोर्निया की कंपनी माइकोवर्क्स तो मशरूम की मदद से ऐसी मज़बूत ईंटें तैयार कर रही है, जो कंक्रीट से भी ज़्यादा मज़बूत हैं.
ऑस्ट्रेलिया की मेलबर्न यूनिवर्सिटी की टिएन हुईन्ह भी मशरूम से ईंटें तैयार करने पर रिसर्च कर रही हैं. इसके लिए वो धान की भूसी और बेकार पड़े कांच का प्रयोग करती हैं. फफूंद से तैयार ये ईंटें, आम ख़िश्तों और कंक्रीट का सस्ता और पर्यावरण के लिए कम नुक़सानदेह विकल्प बन सकती हैं. और कांच होने की वजह से इनमें दीमक भी नहीं लगेगा. फफूंद में ऐसे एंजाइम होते हैं, जिनसे दीमक दूर भागते हैं.
मेलबर्न यूनिवर्सिटी की ही एक टीम मशरूम से चिटिन नाम का केमिकल तैयार कर रही है, जो कॉस्मेटिक बनाने में प्रयुक्त होता है. अब तक इसे शेलफ़िश से निकाला जाता था.
असम के इंजीनियरिंग कॉलेज और डॉन बॉस्को यूनिवर्सिटी के बायोइंजीनियर गीतार्थ कलिता कहते हैं कि, 'फफूंद के इस्तेमाल की असीमित संभावनाएं हैं.'
गीतार्थ और उनकी टीम फंगस की मदद से इमारत बनाने में प्रयोग होने वाली लकड़ी का विकल्प तैयार कर रहे हैं. इसमें फफूंद के अलावा खेती के कचरे का इस्तेमाल भी किया जा रहा है. इससे कचरा भी साफ़ हो रहा है और लकड़ी का विकल्प भी तैयार हो रहा है.
गीतार्थ कलिता कहते हैं कि, 'हम इंसान पर्यावरण को पहले ही बहुत नुक़सान पहुंचा चुके हैं. इसलिए हमें मौजूदा तत्वों के बजाय फफूंद जैसे क़ुदरती विकल्प आज़माने होंगे. ये हमारे कचरे को साफ़ करेंगे और मज़बूत विकल्प भी देंगे.'