एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटGetty Imagesचारा घोटाले के कई मामलों में जेल की सज़ा काट रहे लालू प्रसाद यादव को सुप्रीम
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चारा घोटाले के कई मामलों में जेल की सज़ा काट रहे लालू प्रसाद यादव को सुप्रीम कोर्ट से ज़मानत नहीं मिली.
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ज़मानत नहीं मिलने के साथ ही यह साफ हो गया कि 2019 के आम चुनाव के दौरान लालू प्रसाद जेल में ही रहेंगे और बिहार के आम लोगों के बीच उनकी मौजूदगी नहीं हो पाएगी. वे ना तो अपनी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के लिए कोई रैली कर पाएंगे और ना ही नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष की राजनीति में कोई प्रत्यक्ष भूमिका निभा पाएंगे.
यानी बिहार में करीब 42 साल बाद ये पहला मौका होगा जब कोई चुनाव तो होगा लेकिन उसमें लालू नहीं होंगे.
लालू प्रसाद पहली बार 1977 में बिहार के सारण से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे, तब से बिहार के हर चुनाव में लालू प्रसाद की अपनी भूमिका रही है. चाहे वो चुनाव हार रहे हों और राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर उनका पॉलिटिकल ऑबिट पढ़ा जा रहा हो या फिर वे चुनाव जीत रहे हों और उन्हें भारतीय लोकतंत्र का चमत्कार बताया जा रहा हो, बीते चार दशकों में बिहार की राजनीति में लालू की छाप दिखी है.
लालू को चारा घोटाले के जिन मामलों में सज़ा हुई है, उसकी सबसे पहले शिकायत दर्ज करने वाले लोगों में शिवानंद तिवारी शामिल रहे हैं. आजकल शिवानंद तिवारी एक बार फिर से लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ हैं.
लालू की जमानत से सुप्रीम कोर्ट के इनकार के फैसले पर शिवानंद तिवारी कहते हैं, “हमलोगों को उम्मीद थी कि लालू को ज़मानत मिल जाएगी, लेकिन उन्हें ज़मानत नहीं मिली है. जनता सबकुछ समझ रही है.”
जनता क्या समझ रही है इस पर शिवानंद तिवारी कहते हैं, “जिस तरह से सेलेक्टिव होकर लालू को फंसाया गया और जिस तरह से उन्हें एक ही मामले में कई बार सज़ा दी जा रही है, यह सब लोग समझ रहे हैं. ये मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि मैं आज लालू के साथ हूं, बल्कि इसलिए कह रहा हूं क्योंकि ये सब होते हुए मैंने नज़दीक से देखा है.”
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हालांकि लालू यादव जिस मामले में सज़ा भुगत रहे हैं, वह घोटाला तो बिहार में हुआ था और उससे सरकारी राजस्व को काफी नुकसान भी हुआ था. हालांकि लालू प्रसाद यादव हमेशा कहते रहे हैं कि उन्होंने ही सालों से चले आ रहे इस घोटाले को सबसे पहले पकड़ा था. एक हकीकत यह भी है कि जिस मामले में लालू प्रसाद यादव जेल में हैं, उसी मामले में उनसे पहले बिहार के मुख्यमंत्री रहे जगन्नाथ मिश्रा बरी कर दिए गए हैं.
लालू का असर
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इस पर शिवानंद तिवारी कहते हैं, “घोटाला हुआ था, लेकिन वह तो सालों से व्यवस्थागत तौर तरीके से हो रहा था. और इस घोटाले में जो नुक़सान हुआ था, उद्देश्य तो उसका पूरा करना था, वसूली करके सरकारी राजस्व में रखना था लेकिन ये सब नहीं हो कर इस पूरे मामले का उद्देश्य केवल लालू प्रसाद यादव को फंसाना रह गया.”
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शिवानंद तिवारी इसकी वजह भी बताते हैं, “लालू ने जो स्टैंड ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ लिया, जो स्टैंड बीजेपी और आरएसएस के खिलाफ लिया, उस स्टैंड की कीमत उन्हें चुकानी पड़ रही है.”
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लालू माइनस बिहार की पॉलिटिक्स मुमकिन नहीं
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नीतीश ने महागठबंधन की भ्रूण हत्या की: लालू
无法克服部长拉卢·普拉萨德·亚达夫,尽管他在比哈尔邦议会选举2015年,所有的人气和资源。拉鲁在选举的选举集会是笑好莫迪复制了他的支持者。
在一个集会上,他们被告知,“莫迪的不要说颈部或颈部的静脉会拉。”比哈尔邦包的基本名字是由莫迪炫耀完美模拟公布拉鲁。
{} 18 2015年大选相信经过大家莫迪拉鲁在他面前的大胆魔力不会表现出任何影响。然而,他与尼什·库马尔莫迪和阿米特·沙阿在比哈尔邦而降低魔。 {18} 最近有拉卢·普拉萨德·亚达夫的他的自传的政治生涯。鲁帕出版社出版的“Gopalganj to Raisa,我的政治之旅”中的Lalu Prasad Yadav告诉我在年龄,他已经开始喜欢Mimicri的。
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{} 21 他说,这本书,“我不知道在哪里Mimicri得知,但它是很好的。我的朋友和喜欢它的很多到我的老师。播放一次威尼斯商人在我的学校玩,我加Shaylok的作用。我的人对话非常像交付。” {21} 但是Lalu遍布面积为串行铁辛格全印广播电台播出了更多的影响博杰普尔。串行铁的主角辛格从对话听人以及英国军队退役士兵。
{} 777 拉鲁已经错过了几次对话铁辛格在他的书。这样的对话:“噢Khadren母亲,种族Badhu酒店,Mehraru胡子,你为什么不HOLA和头发,为什么一个人洗澡碍眼的头?” {777} 和这里的答案LOHA辛格目前,要么把Mehraru人Munc扎尔工作舌头莱拉等过期,精力充沛的人脑工程莱拉,从Kpar头发扎尔Jhala即
拉鲁溴二苯醚风格
{} 26 这是我的学生时代开始铁辛格复制Utarni,后来进入了政治拉鲁我变得与人连接的手段。 {26} 希万南达蒂瓦里说,“拉鲁典型讲直接它是他们说,在1990年比哈尔该时间封建势力的纠缠方式,不可能有任何其他方式。于是,他决定给声音穷人Gurbon,如果他们不喜欢他轴承第二领头羊二苯醚的风格和比哈尔邦今天说话。”
{} 28 拉鲁·普拉萨德·大概会记得观察家亚达夫政治的拉鲁有包括BJP整个反对派的支持他,当他是首次首席部长在1990年,但他ç阿德瓦尼解雇上述访问寺庙运输车高速拍摄。 {28} 他在这个师在甘地迈丹演讲直到今天还记得的人,当时他说,“当人们将不再是在寺庙的钟一样谁会玩,当那个人不在那里时,谁会在清真寺里祈祷?普通人的生命同样珍贵领导者/首相,是否我的秘密,我是不会妥协的那些骚乱蔓延。”
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बहरहाल, लालू के जेल में रहने के चलते इस बार बिहार के चुनाव प्रचार में लालू का अपना गंवई अंदाज़ देखने को नहीं मिलेगा. वैसे तो चारा घोटाले में 2013 में सजा मिलने के बाद ही लालू के चुनाव लड़ने पर रोक लग गई थी लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव और 2015 की विधानसभा चुनाव के दौरान लालू को अपनी पार्टी या गठबंधन के उम्मीदवार के पक्ष में रैली करने का मौका मिला था.
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2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी तमाम लोकप्रियता और संसाधनों के बावजूद नरेंद्र मोदी लालू प्रसाद यादव से पार नहीं पा सके थे. इस चुनाव के दौरान एक चुनावी सभा में लालू ने मोदी की नकल उतारकर अपने समर्थकों को खूब हंसाया था.
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अपनी एक रैली में तो उन्होंने ये भी कहा था, “मोदी जी, इस अंदाज़ में मत बोलिए वरना गर्दन की नस खींच जाएगी.” बिहार को पैकेज देने के नाम पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा की नकल भी लालू ने बखूबी उतार कर दिखाया था.
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2015 के आम चुनाव के बाद हर किसी ने यही माना था कि मोदी के जादू के सामने लालू का बड़बोलापन कोई असर नहीं दिखा पाएगा. लेकिन लालू ने नीतीश कुमार को साथ लेकर बिहार में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के जादू को कम कर दिया था.
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हाल में ही लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक सफ़र पर उनकी ऑटोबायोग्राफी आई है. रुपा पब्लिकेशंस से प्रकाशित 'गोपालगंज टू रायसीना, माय पॉलिटिकल जर्नी' में लालू प्रसाद यादव ने बताया है कि बेहद कम उम्र से ही उन्हें मिमिक्री का शौक हो गया था.
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उन्होंने इस किताब में बताया है, “मैं नहीं जानता कि मिमिक्री कहां से सीखी लेकिन मैं इसमें बहुत अच्छा था. मेरे दोस्त और मेरे शिक्षकों को यह खूब पसंद आता था. मेरे स्कूल में एक बार द मर्चेंट ऑफ़ वेनिस नाटक खेला गया, मैंने उसमे शायलॉक का रोल किया था. लोगों को मेरी डॉयलॉग डिलिवरी बेहद पसंद आई थी.”
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लेकिन लालू पर सबसे ज़्यादा असर भोजपुरी में ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारित होने वाले सीरियल लोहा सिंह का रहा. इस सीरियल का मुख्य किरदार लोहा सिंह ब्रिटिश फौज से रिटायर है सैनिक था जिसके डायलॉग को लोग खूब सुना करते थे.
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लालू ने अपनी किताब में लोहा सिंह के कई डॉयलॉग को याद किया है. मसलन एक डॉयलॉग है, “ओ खादरेन के मदर, जानत बाड़ू, मेहरारू के मूंछ काहे ना होला और मर्द के माथा के बाल काहे झर जाला?”
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और इसका जवाब खुद लोहा सिंह देते हैं, सुन ला, मेहरारू लोग ज़बान से काम लेला, इ से मुंछ झर झाला और मर्द लोग दिमाग से काम लेला, इ से कपार के बाल झर झाला.
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लालू का भदेस अंदाज़
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लालू ने अपने स्कूली दिनों से ही लोहा सिंह की नकल उतारनी शुरू की, जो आगे चलकर उनकी राजनीति में आम लोगों से कनेक्ट करने का माध्यम बन गया.
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शिवानंद तिवारी बताते हैं, “लालू की खासियत यह रही है कि वो जो बोलते हैं सीधा बोलते हैं, उस दौर में 1990 में बिहार जिस तरह से सामंतवादी ताकतों में उलझा था उस वक्त कोई दूसरा रास्ता हो भी नहीं सकता था. लिहाजा उन्होंने तय कर लिया था कि ग़रीब गुरबों को आवाज़ देनी है, तो वे उसी भदेस अंदाज़ में बोलते रहे और आज भी बिहार में उनके जैसा असर वाला दूसरा नेता नहीं है.”
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लालू प्रसाद यादव की राजनीति पर नजर रखने वालों को शायद याद होगा कि लालू जब पहली बार 1990 में मुख्यमंत्री बने थे तब बीजेपी सहित पूरे विपक्ष ने उनका समर्थन किया था. लेकिन उन्होंने इसके बाद राम मंदिर रथ यात्रा निकाल रहे आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया था.
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इस दौरान गांधी मैदान में उनका दिया भाषण भी लोगों को आज भी याद आता है, जब उन्होंने कहा था, “जब इंसान ही नहीं रहेगा तो मंदिर में घंटी कौन बजावेगा, जब इंसान ही नहीं रहेगा तो मस्जिद में इबादत कौन करेगा. आम आदमी का जान उतना ही कीमती है जितना नेता/पीएम का, चाहे मेरा राज रहे या जाए, मैं दंगा फैलाना वालों से समझौता नहीं करूंगा.”
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लालू ने आडवाणी को गिरफ्तार किया और इसके बाद भी बिहार के किसी इलाके से कोई दंगे की खबर नहीं आयी. लेकिन लालू ने इसके बाद बीजेपी और आरएसएस को हमेशा हमेशा के लिए अपना राजनीतिक दुश्मन बना लिया.
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लालू प्रसाद यादव को नेशनल मीडिया ने हमेशा विलेन की तरह पेश किया लेकिन लालू बिहार में एक के बाद एक चुनावी रैली करके विपक्षियों के सामने अपनी ताकत बताते रहे.
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लालू की रैलियों के नाम भी दिलचस्प हुआ करते थे. उनकी पहली ऐसी रैली थी गरीब रैली, 1995 की इस रैली को आज भी बिहार की सबसे बड़ी रैलियों में गिना जाता है. 1997 में लालू ने रैली का नाम बदलकर महागरीब रैला रख दिया. 2003 में घटते जनाधार के बीच लालू ने लाठी रैला का आयोजन किया था. फिर चेतावनी रैली और भाजपा बचाओ देश बचाओ जैसी रैली में लालू काफी भीड़ जुटाने में सफल रहे थे.
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लालू की आम लोगों से कनेक्ट करने की खूबी का लोहा उनके विरोधी भी मानते रहे हैं.
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जनता दल यूनाइटेड के प्रवक्ता राजीव रंजन बताते हैं, “ये बात तो है कि नैसर्गिक अंदाज और स्वभाविक रूप में लोगों से कनेक्ट करने के मामले में लालू जी जैसे दूसरे नेता कम ही होंगे. लेकिन परिवार और भ्रष्टाचार के चलते उन्होंने खुद को अप्रासंगिक बना लिया है.”
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लालू प्रसाद यादव के जेल में होने का असर बिहार में उनकी पार्टी की राजनीति पर काफी दिखा भी है. महागठबंधन की सीटों और उम्मीदवारों को तय करने में काफी वक्त लगा. इसके बाद लालू प्रसाद के बड़े बेटे तेज प्रताप भी बगावती तेवर के साथ मैदान में उतर आए हैं. इन सबसे आरजेडी की स्थिति कमज़ोर होने का अनुमान लगाया जा रहा है, ये भी कहा जा रहा है कि अगर लालू बाहर होते तो ये सब नौबत नहीं आती.
'पूस के ठंड में ऊ जेल में, यह नहीं सहा जाएगा'
लालू के चरवाहा विद्यालय जिन पर दुनिया थी हैरान!
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लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या उनकी कमी से आरजेडी की स्थिति भी प्रभावित होगी.
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राजीव रंजन कहते हैं, “नीतीश कुमार जी ने जिस तरह से बिहार को नई दिशा दी है उसमें लालू अगर होते भी तो भी आरजेडी या महागठबंधन को कोई फायदा नहीं होता. नहीं हैं तो स्थिति सबके सामने है है, परिवार में झगड़ा है, महागठबंधन में सीटों को लेकर तकरार है.”
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हालांकि शिवानंद तिवारी की राय इससे उलट है. वे कहते हैं, “लालू जब जब मुसीबत में होते हैं उनके कोर वोटर उनके समर्थन में एकजुट हो जाते हैं. ऐसा कई बार हुआ है और इस बार भी ऐसा हो रहा है.”
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बिहार के वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार और बाबू जगजीवन राम शोध संस्थान के निदेशक श्रीकांत भी कहते हैं कि लालू का एक अपना अंदाज़ तो था. वे जिस तरह से बीजेपी पर आक्रामक रुख अपनाते थे, वैसा आक्रमण करने वाला दूसरा नेता तो नहीं ही है. ऐसे में महागठबंधन को उनकी कमी तो खलेगी.
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तेजस्वी यादव के राजनीतिक सलाहकार संजय यादव बताते हैं, “लालू जी होते तो उनके फिजिकल प्रेजेंस का अपना असर तो होना ही था. लेकिन आज बिहार की जनता समझ रही है कि लालू चुनावी रैलियों में क्यों नहीं हैं, उन्हें क्यों रोका जा रहा है. लालू जी के विचार पर चलने वाले आज ढेरों युवा हैं. इसी वजह से आप हमारी रैलियों में इतनी भीड़ देख रहे हैं.”
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आम लोगों पर असर
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महागठबंधन में शामिल राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव फ़ज़ल इमाम मल्लिक कहते हैं, “लालू को ज़मानत मिल जाती तो बिहार में एक बार फिर दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक की एकजुटता देखने को मिलती. वे नहीं हैं लेकिन आम जनता उनके पक्ष में खड़ी है और गठबंधन का समर्थन कहीं से कम नहीं होता दिख रहा है. बिहार में महागठबंधन की सबसे बड़ी ताकत लालू जी ही हैं.”
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बिहार में महागठबंधन में लालू प्रसाद यादव का कितना असर है, इसे देखने के लिए कांग्रेस पार्टी में शामिल होने वाले शत्रुघ्न सिन्हा की प्रेस कांफ्रेंस को देखना चाहिए. जिसमें वे साफ तौर पर कहते हैं कि उन्हें लालू जी ने कहा है कि वे कांग्रेस के साथ जाकर विपक्ष को मजबूत करें.
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पहले माना जा रहा था कि शत्रुघ्न सिन्हा को आरजेडी से टिकट मिलेगा लेकिन बाद में रणनीतिक तौर पर शिवशंकर प्रसाद के सामने सजातीय वोटों को हासिल करने की कवायद के तहत शत्रुघ्न सिन्हा कांग्रेस के रास्ते महागठबंधन के उम्मीदवार बने हैं
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वहीं दूसरी ओर, लालू प्रसाद यादव की गैरमौजूदगी ने दूसरी ओर तेजस्वी को पांव टिकाने में मदद की है. उन्होंने जिस तरह से महागठबंधन के सीट बंटवारे में पिछड़ों और दलितों का ध्यान रखा है, इसे विश्लेषक उनकी राजनीतिक परिपक्वता के रूप में देख रहे हैं.
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संजय यादव बताते हैं, “बिहार में पहले चरण के मतदान तक तेजस्वी जी की 52 जगह सभाएं हो चुकी हैं. वे स्टार कैंपेनर के तौर पर उभरे हैं. बिहार में किसी दूसरे नेता ने अब तक 20 सभाएं भी नहीं की हैं.”
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बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान लालू प्रसाद यादव ने अकेले 252 चुनावी सभाओं को संबोधित किया था, तो तेजस्वी के सामने चुनौती काफी बड़ी है. उनकी सभाओं में भीड़ तो दिख रही है लेकिन यह वोट में बदलती है या नहीं, ये देखने की बात होगी.
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लालू को भी इसका एहसास रहा होगा, लिहाजा उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद एक लेटर जारी करके बिहारवासियों से अपील की है कि सारे मतभेद भुलाकर सामाजिक न्याय के पक्ष में मतदान करें.
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एक बात और है, लालू प्रसाद यादव के समर्थक और विरोधी दोनों की राय, लालू को लेकर बदलती नहीं दिखी है. उनके समर्थक जहां उन्हें सामाजिक राजनीति का मसीहा बताते हैं, वहीं उनके विरोधी उन्हें भ्रष्टाचार और वंशवाद के हिमायती नेता.
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लेकिन लालू यादव के शासनकाल दौरान बिहार की जो छवि रही और लालू परिवार पर लगे आरोपों को लेकर कोई बात नहीं करना चाहता. अभी बात केवल नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की जोड़ी के कामकाज और इमेज की हो रही है या फिर महागठबंधन के जातीय समीकरणों की हो रही है. दोनों में मुक़ाबला बराबरी के टक्कर का माना जा रहा है.
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लालू जब अपने राजनीतिक करियर में उफान पर थे तो हमेशा कहा करते थे जब तक रहेगा समोसे में आलू तब तक बिहार में रहेगा लालू. इस बार लालू खुद तो नहीं हैं लेकिन उनकी बातें और उनकी विरासत की लड़ाई को आगे बढ़ाने का दारोमदार तेजस्वी पर आ गया है. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि नतीते चाहे जो रहें लेकिन तेजस्वी यादव राजनीति के दांव पेंच बखूबी समझने लगे हैं और यह उनकी राजनीति को आगे बढ़ाएगी.
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