एब्स्ट्रैक्ट:"फूला हुआ पेट, कांपते हुए हाथ और बोझिल दिखती छोटी-छोटी आंखें...उसकी हर सांस ज़िंदगी से संघर्ष करती ह
“फूला हुआ पेट, कांपते हुए हाथ और बोझिल दिखती छोटी-छोटी आंखें...उसकी हर सांस ज़िंदगी से संघर्ष करती हुई दिखती है.”
क़रीब पांच किलो की सीता सिर्फ़ बच्चों ही नहीं प्रशासनिक व्यवस्था में फैले हुए कुपोषण का ज़िंदा दस्तावेज़ है.
वाराणसी के सजोईं गांव में रहने वाली इस बच्ची की मां अशरफ़ी के मन में बस एक सवाल है कि सरकार उसकी बच्ची की सेहत सुधारने के लिए कोई कारगर कदम क्यों नहीं उठाती?
यही सवाल अमेठी में रहने वालीं लीलावती भी उठाती हैं जिनकी नातिन पलक भी गंभीर रूप से कुपोषण की चपेट में है.
ये वो महिलाएं हैं जिन्होंने साल 2014 में नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी का राजनीतिक भविष्य तय करने में अपनी-अपनी भूमिका निभाई थी .
Image caption अपनी मां की गोद में लेटी सीता
साल 2019 में अब एक बार फ़िर यही महिलाएं इन दोनों दिग्गज़ नेताओं की किस्मत का फ़ैसला करने जा रही हैं.
'मोदी जी, हमारे बच्चे को बचा लें'
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संसदीय सीट वाराणसी के सजोईं गांव में रहने वाली अशरफ़ी की आंखें अपनी बच्ची सीता की हालत बयां करते हुए आंसुओं से भर जाती हैं.
भूख से बिलखती सात महीने की बच्ची सीता को अपने सीने से लगाए अशरफ़ी कहती हैं, “हमारी बच्ची तो उसी दिन से कष्ट में है जिस दिन ये पैदा हुई. जनम के समय चार-चार अस्पतालों के चक्कर काटे. कहीं किसी ने नहीं लिया. घर पर 'आशा बहू' को बुलाया तो वो भी नहीं आई. इसके बाद घर में ही इसका जनम हुआ. ये तब से ही बीमार है.”
जन्म के समय सीता का वज़न एक किलोग्राम से भी कम था.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार, जन्म के समय किसी भी बच्चे का वज़न 2.4 किलोग्राम से कम नहीं होना चाहिए.
सात महीने की उम्र में सीता का वज़न 6 किलोग्राम से भी ज़्यादा होना चाहिए. लेकिन इस बच्ची का वज़न मात्र 5 किलोग्राम है.
वजन के आधार पर सीता जैसे बच्चे अतिकुपोषित बच्चों की श्रेणी में आते हैं.
Image caption अपनी मां की गोद में बैठी हुई सीता
केंद्र सरकार ऐसे ही बच्चों को कुपोषण से उबारने के लिए ही बाल विकास एवं पुष्टाहार योजना और मिड डे मील जैसी योजनाएं चला रही है.
साल 1975 में शुरू हुई इस योजना का उद्देश्य भारत में कुपोषण की मार झेल रहे लगभग चालीस फ़ीसदी बच्चों को कुपोषण की गिरफ़्त से बाहर निकालना है.
इसके तहत आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को 0 से 6 माह के बच्चों के परिवारों को हर महीने पंजीरी (बीनिंग फूड - लगभग एक किलोग्राम), मीठा दलिया (लगभग एक किलोग्राम) और नमकीन दलिया (लगभग एक किलोग्राम) देना चाहिए.
लेकिन पुष्टाहार बांटे जाने के तरीके पर नाराज़गी जताते हुए अशरफ़ी कहती हैं, “वो बस दरिया दे देती हैं. वो भी हमेशा नहीं मिलता है. कभी मिल जाता है. कभी नहीं मिलता है. कभी उन्होंने ये नहीं बताया कि बिटिया को ये सब कैसे खिलाना है. हम तो इतने पढ़े-लिखे नहीं हैं कि पैकेट पर लिखी हुई चीज़ें पढ़ सकें. जब भी बनाकर खिलाती हूं तो इसे दस्त लग जाते हैं. फिर डाक्टर-अस्पताल के चक्कर काटने पड़ते हैं...अब ऐसे में मेरी जैसे दिहाड़ी मजदूर क्या करे. डाक्टर का खर्चा संभालें या इसे खिलाएं-पिलाएं?”
आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के रवैये पर बनारस के ही परमंदापुर गांव में रहने वाली दो साल के बच्चे साजन की मां सोनी भी असंतोष व्यक्त करती हैं.
Image caption अपने बच्चे साजन के साथ खड़ीं हुईं सोनी
सोनी कहती हैं, “आंगनबाड़ी वाले कभी बता देते हैं कि पांच तारीख़ को मिलेगा पुष्टाहार. कभी कोई सूचना ही नहीं आती है. ऐसे में हर महीने कैसे मिले पुष्टाहार.”'
वहीं, दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने वाले साजन के पिता जय प्रकाश अपने बच्चे की हालत को लेकर अपने सांसद के प्रति आक्रोश ज़ाहिर करते हैं.
वह कहते हैं, “हमारे बच्चे की हालत बहुत ख़राब है. इसकी उमर दो साल है. इतने में इसका वज़न 10 किलो से ज़्यादा होना चाहिए था. लेकिन इसका वज़न लगातार घटता जा रहा है. जब तक दवा चलती है तब तक मेरा बच्चा ठीक रहता है. दवा ख़त्म होते ही बीमारी फिर लौट आती है. मैं मज़दूर हूं. समझ नहीं आता है कि मैं अपने बच्चे के लिए खाने की ख़ातिर पैसे जुटाऊं या दवा के लिए. हमारे सांसद होने के नाते मोदी जी कुछ तो कर ही सकते हैं.”
दलित समुदाय पर कुपोषण की मार
साल 2015 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ न्यूट्रीशन ने कुपोषण के सामाजिक पहलू से जुड़ी एक रिपोर्ट पेश की थी.
इस रिपोर्ट में ये सामने आया था कि दलित समुदायों में जन्म लेने वाले बच्चों पर कुपोषण की मार दूसरे वर्गों की अपेक्षा ज़्यादा पड़ती है.
(आंकड़ों का ग्राफ़िक्स)
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रिपोर्ट बताती है कि अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति में जन्म लेने लड़कों में से 32.4 फीसदी बच्चे कुपोषण से पीड़ित होते हैं. वहीं, अन्य जातियों के लिए ये प्रतिशत 21 फीसदी है.
अनुसूचित जातियों-जनजातियों में जन्म लेने वाली लड़कियों में 31.7 फीसदी कुपोषण का शिकार होती हैं.
वहीं, अन्य जातियों में जन्म लेने वाली लड़कियों में से 20.1 फीसदी बच्चियां कुपोषण से पीड़ित होती हैं.
ये रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि इन जातियों में जन्म लेने वाले बच्चे किस तरह इन सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं.
हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर एस वी सुब्रमण्यन ने हाल ही में अंग्रेजी वेबसाइट स्क्रॉल को दिए एक इंटरव्यू में इसका उल्लेख भी किया है.
सुब्रमण्यन कहते हैं, “कुपोषण को बढ़ाने में सामाजिक-आर्थिक स्तर की एक बड़ी भूमिका होती है. बच्चों को कुपोषित बनाने में जातिगत भेदभाव भी अपनी एक भूमिका अदा करता है. मुझे लगता है कि घर से लेकर गांव के स्तर पर आर्थिक तंगी बच्चों को कुपोषण की ओर ले जाती है.”
बीबीसी की ग्राउंड रिपोर्ट में भी ये पहलू सामने आया है. वाराणसी की पिंडरा तहसील के पिंडारा गांव में रहने वाली गीता मुसहर जाति से आती हैं.
ये एक ऐसी जाति है जिसे समाज में भारी उपेक्षा का सामना करना पड़ता है.
गीता कहती हैं, “हमारे पास न घर है न मढ़ैया. न खेत न क्यारी. कुनबी और ठाकुर जाति के लोग भी मारते हैं. ऐसे में हम जाएं तो कहां जाएं.”
“हमारे तीन-तीन लड़कियां हैं. पति विकलांग हैं. भट्टे पर जाकर काम करते हैं. इन्हें खिलाने की ख़ातिर. भट्टे वाले का बीस हज़ार रुपये कर्जा हमारे ऊपर है. वहां तो जाना ही पड़ेगा न. भट्टे पर जाते-जाते ये हमारा लड़का भी कुपोषित हो गया. जब हम ही पेट भर खाना नहीं खा पाएंगे तो बच्चे के लिए दूध कहां से होगा.”
मुसहर जाति के बच्चों को कुपोषण से बाहर निकालने की कोशिश में लगे सामाजिक कार्यकर्ता सोमारु बताते हैं कि इस जाति के लोगों को आंगनबाड़ी और आशा वर्करों की ओर से भी सही सहयोग नहीं मिल पाता है.
वह कहते हैं, “मुसहर जाति के बच्चों का कुपोषण से संघर्ष काफ़ी कठिन है. समस्या ये है कि आर्थिक और सामाजिक रूप से सबल जातियों से आने वाली आंगनबाड़ी वर्कर इन लोगों के बीच समय नहीं बिताना चाहती हैं. एक मामले में मैंने एक महिला आंगनबाड़ी कार्यकर्ता को ये तक कहते सुना है कि मुसहर जाति के लोगों से गंदी बदबू आती है. हमने इस मामले में शिकायत तक दर्ज कराई. अब बताएं ऐसी कार्यकर्ता इस समाज के लोगों के साथ कैसे तालमेल बिठा पाएगी? और इस तरह इस योजना से इन लोगों का क्या भला हो पाएगा?”
बीबीसी ने अपनी पड़ताल में ये भी पाया कि सामाजिक स्तर के साथ साथ बोली-भाषा, संवेदनशीलता की कमी और समाजसेवा के क्षेत्र में काम करने के लिए ज़रूरी ट्रेनिंग का अभाव भी मदद करने वाले लोगों और मदद का इंतज़ार कर रहे लोगों के बीच एक दूरी पैदा करता है.
वाराणसी की ज़िला कार्यक्रम अधिकारी मंजू देवी इस बात को स्वीकार करती हैं.
मंजू देवी बताती हैं, “ये बात सही है कि जब गांव में जाकर महिलाओं को ये बताया जाए कि आपका बच्चा कुपोषित है तो वो ये बात समझ नहीं पाती हैं. ऐसे में हम उन्हें कहते हैं कि अगर उनके बच्चा कमजोर है तो ये चिंता की बात है क्योंकि कुपोषण बच्चों के बड़े होने पर भी उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता पर असर डालता है. कुछ समय पहले तक हमारा विभाग इन मुद्दों को लेकर महिलाओं के बीच समझ विकसित करने के लिए एक चौपाल का आयोजन करता था. कुछ समय से ये कम प्रचलन में है. लेकिन ये बात सही है कि इसे लेकर लोगों में एक समझ विकसित किए जाने की ज़रूरत है.”
वहीं, वाराणसी ज़िले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी वी बी सिंह भी मानते हैं कि कुपोषण एक गंभीर समस्या है.
वह कहते हैं, “वाराणसी में अति कुपोषित बच्चों का होना अत्यंत चिंता का विषय है. इसके लिए हमारे यहां आईसीडीएस मिशन के तहत काम चल रहा है. कोशिश की जा रही है कि अति कुपोषित बच्चों को जल्द से जल्द कुपोषण से बाहर निकालकर लाया जाए.”
'राहुल ने हमारे लिए कुछ नहीं किया'
राहुल गांधी की संसदीय सीट अमेठी के मुसाफ़िर ख़ाना क्षेत्र में रहने वाली लीलावती दुबे अति कुपोषित श्रेणी में आने वाली अपनी नातिन पलक की स्थिति को लेकर अपने सांसद राहुल गांधी और देश के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नाराज़ नज़र आती हैं.
लीलावती कहती हैं, “हमारे लिए न तो राहुल गांधी ने कुछ किया और न ही मोदी ने. ये सब नेता लोग अपना-अपना पेट पहले भरते हैं. राहुल गांधी जी हमारे नेता हैं लेकिन आज तक पूछने नहीं आए हैं कि हमारा हाल कैसा है? खा रही हो कि मर रही हो, तुम्हारे बच्चे खा रहे हैं कि मर रहे हैं. हवा के समान आते हैं और हवा की तरह चले जाते हैं. इतनी उमर हो गई आज तक दर्शन नहीं हुए.”
वहीं, पलक के पिता रघुराम दुबे राजनीतिक वर्ग की उदासीनता को लेकर निराश नज़र आते हैं.
वह कहते हैं, “किसी नेता से कुछ भी मांगने से आज तक क्या मिला है जो अब मिल जाएगा. हमारी बच्ची इतनी कमज़ोर है. पहले कभी घी वगैरा मिलता था लेकिन अब वो सब भी बंद कर दिया गया है. आप बताइए, बच्चों को घी नहीं खिलाएंगे तो मजबूत कैसे होंगे. हम तो विकलांग हैं. निजी कंपनियां तक नौकरी नहीं देती हैं. अब ऐसे में हम कैसे अपनी बच्ची को कुपोषण के पंजे से बाहर निकालें. इसे बुखार रहता है. कभी पेट दर्द रहता है. आंगनबाड़ी से भी पूरी मदद नहीं मिलती है. इसके लिए पुष्टाहार कभी मिलता है और कभी नहीं मिलता है.”
बीबीसी ने अमेठी की ज़िला कार्यक्रम अधिकारी सरोजिनी देवी से कई बार संपर्क साधने की कोशिश की, लेकिन तमाम बार फोन और संदेश भेजे जाने के बाद भी उनकी ओर से किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं आई.
वहीं, अमेठी के डीएम राम मनोहर मिश्रा ने चुनाव आचार संहिता का हवाला देते हुए कुपोषण पर कुछ भी कहने से इनकार कर दिया.
अब से करीब तीन साल पहले अपनी नातिन ज्योति को मरते हुए देखने वालीं फूलकली देवी भी राजनीतिक नेतृत्व से निराश नज़र आती हैं.
वह कहती हैं, “कई नेता वोट मांगने की ख़ातिर हमारे द्वार तक आए. उसकी फ़ोटो भी खींच कर ले गए और आश्वासन दिया कि हम इलाज़ करा देंगे. लेकिन कुछ हुआ नहीं. साल-डेढ़ साल की उमर से ही उसका सिर बड़ा होने लगा. फिर देखते-देखते सिर काफ़ी बड़ा हो गया. खाना-लैटरीन-पेशाब सब बिस्तर पर ही कराना पड़ता था. फिर एक दिन वो हमें छोड़कर चली गई. लेकिन वो मदद नहीं आई जिसका आश्वासन हमें दिया गया था.”
कुपोषण रोकने में विफलता किसकी ज़िम्मेदारी?
भारत में लगभग चालीस फीसदी बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं.
हर साल लाखों बच्चों की मौत कुपोषण के कारण होती है.
ऐसे में सवाल उठता है कि कुपोषण को रोकने के लिए चलाई जा रही योजनाएं कितनी प्रभावी हैं और इनकी विफलता के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है.
कुपोषण निवारण के क्षेत्र में एक लंबे समय से काम कर रहीं सामाजिक कार्यकर्ता श्रुति नागवंशी इन कार्यक्रमों की विफलता के लिए नीतिगत ख़ामियों को ज़िम्मेदार मानती हैं.
नागवंशी कहती हैं, “हमें ये लगता है कि जब तक नीति के स्तर पर कोई काम नहीं होगा तब तक कोई स्थाई परिवर्तन होने वाला नहीं है. हमारे सांसदों को ये पता होना चाहिए कि उनकी संसदीय सीटों में नागरिक किस हालत में हैं. क्योंकि इन्हीं नागरिकों के दम पर देश का विकास होता है.”
“भारत में विकास का मतलब सिर्फ ढांचागत विकास से ही लगाया जाता है. ये संपूर्ण विकास कैसे हो सकता है? जब तक देश के मानव संसाधन के विकास में सांसदों की भूमिका और जवाबदेही तय नहीं की जाएगी तब तक किसी भी चीज़ के लिए सिर्फ़ ज़िला स्तर अधिकारियों को ही दोषी ठहराया जाता रहेगा.”
क्या सांसदों की जवाबदेही तय की जा सकती है?
भारत में कुपोषण को लेकर ज़िला स्तर पर आंकड़े जुटाए जाते हैं.
इन आंकड़ों के आधार पर कुपोषण निवारण मुहिम की सफ़लता - विफ़लता भी ज़िला प्रशासन के स्तर पर ही आंकी जाती है.
इसी वजह से आज तक किसी सांसद को उसकी संसदीय सीट में कुपोषण को लेकर जवाबदेह नहीं ठहराया जा सका है.
लेकिन ये भी हक़ीक़त है कि किसी भी व्यापक राष्ट्रीय संकट से निबटने के लिए सार्थक नीतियों को बनाने की जिम्मेदारी सांसदों की होती है और सांसद समय समय पर अलग-अलग मुद्दों पर संसद में चर्चा करके नीतियों का निर्माण भी करते हैं
लेकिन हैरानी है कि कुपोषण दूर करने के लिए बनाई गई नीतियों की विफ़लता के लिए सांसदों की जवाबदेही तय करने के लिए कोई मापदंड नहीं है.
हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी की रिसर्च ने खोला रास्ता?
हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अक्षय स्वामीनाथन और एस वी सुब्रमण्यन समेत कई विशेषज्ञों ने एक नए अध्ययन को सामने रखा है जिसकी मदद से कुपोषण को लेकर संसदीय सीटों के प्रदर्शन का आकलन किया जा सकता है.
इकॉनोमिक एंड पब्लिक वीकली में छपे इस अध्ययन के मुताबिक राहुल गांधी की संसदीय सीट अमेठी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संसदीय सीट वाराणसी में कुपोषण का स्तर राष्ट्रीय प्रसार से कहीं ज़्यादा है.
इसके तहत स्टंटिंग, वेस्टिंग, अंडरवेट, और एनिमिया के आधार पर देश की 543 लोकसभा सीटों के प्रदर्शन को मांपा गया है.
इस अध्ययन में साल 2015-16 में जारी किए गए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे में जारी आंकड़ों को इस्तेमाल किया गया है.
Image caption वाराणसी और अमेठी में कुपोषण का प्रभाव
वाराणसी में स्टंटिंग 43 फीसदी, अंडरवेट 46 फीसदी, वेस्टिंग 24 फीसदी और एनीमिया 60 फीसदी है. जबकि भारत में स्टंटिंग 38 फीसदी, अंडरवेट 36 फीसदी, वेस्टिंग 23 फीसदी और एनिमिया 59 फीसदी है.
कुपोषण को लेकर राहुल और मोदी कितने गंभीर?
बीबीसी हिंदी ने यही जानने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संसदीय सीट वाराणसी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की संसदीय सीट अमेठी का दौरा किया.
आंकड़ों के लिहाज़ से कुपोषण दूर करने में इन दोनों सीटों का प्रदर्शन राष्ट्रीय औसत से भी खराब है.
राहुल गांधी ने पांच राज्यों के चुनाव प्रचार के दौरान मध्य प्रदेश में कुपोषण के लिए मोदी को आड़े हाथों लेते हुए कहा था कि एक ओर मध्य प्रदेश में बच्चे कुपोषण से मर रहे हैं वहीं मोदी जी मार्केटिंग में व्यस्त हैं.
अगर नरेंद्र मोदी की बात करें तो मोदी ने भी समय-समय पर कांग्रेस पार्टी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कुपोषण के मुद्दे पर खरी-खोटी सुनाई है.
राहुल गांधी ने बीते पांच सालों में एक सांसद के रूप में संसद में कुपोषण की समस्या को लेकर एक भी सवाल नहीं उठाया है.
लेकिन इन दोनों बड़े नेताओं की लोकसभा सीटों में कुपोषण की मार झेल रहे बच्चों की स्थिति कुछ और ही कहानी बयां करती है.
कमर पर बंधा काला धागा, गले में लॉकेट और हाथों में काला धागा.
यहाँ के गांवों में नंग-धड़ंग घूम रहे बच्चों के तन-बदन पर ये चीज़ें सबसे पहले दिखाई देती हैं.
क्योंकि इन बच्चों की माओं के बीच कुपोषण को लेकर एक समझ का अभाव है.
ये महिलाएं आज भी अपने बच्चों के कमजोर या बीमार होने के लिए दैवीय आपदाओं को ज़िम्मेदार मानती हैं.
वाराणसी ज़िले में अतिकुपोषित बच्चों की संख्या चार हज़ार से भी ज़्यादा है. वहीं, अमेठी में हर छठा बच्चा कुपोषित है. ये आंकड़े सरकार के ही हैं और देश की उन चर्चित और हाई प्रोफ़ाइल सीटों के हैं, जिनकी नुमाइंदगी करने वाले एक व्यक्ति (नरेंद्र मोदी) ने पिछले पाँच साल तक नीतियां तय की हैं, और दूसरी सीट का प्रतिनिधित्व 15 साल से राहुल गांधी के हाथों में हैं.
ऐसे में सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कुपोषण जैसी समस्या को लेकर सरकारें और उनके प्रतिनिधि किस कदर गंभीर हैं.
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