एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटMeera BauhriImage caption उर्वशी को नए कपड़े पहनने का बहुत शौक है. साये में उसके सुरक्ष
इमेज कॉपीरइटMeera BauhriImage caption उर्वशी को नए कपड़े पहनने का बहुत शौक है.
साये में उसके
सुरक्षा, सहारा और संसार है
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मुश्किलें भी कर दे आसान
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ऐसा ही उसका प्यार है
इन मांओं की हिम्मत का भी जवाब नहीं जो खुद कांटों का दर्द सहकर अपने बच्चों की राह में नरम फूल बिछा रही हैं. इन्होंने हार नहीं मानी और अपने बच्चे की दुनिया को उतना ही खूबसूरत बनाने की कोशिश की जैसी किसी भी दूसरे बच्चे की होती है.
यहां कहानी है उन मांओं की जिन्होंने अपने स्पेशल बच्चे की ज़िंदगी को वाकई खास बना दिया और मुश्किलों से लड़ने का हौसला दिया. उन चुनौतियों को पार करने का रास्ता उनके बेइंतहा प्यार से ही बना.
दिल्ली के लाजपत नगर की रहने वालीं मीरा बहुरी को अपनी बेटी के स्पेशल चाइल्ड होने का तब पता चला जब वो नौ महीने की थी. उनकी बेटी उर्वशी का अपने सिर पर नियंत्रण नहीं था. जबकि पांच या छह महीनों में ही बच्चे का सिर उसके नियंत्रण में आ जाता है.
मीरा बताती हैं, ''उर्वशी के साथ कुछ भी सामान्य बच्चों जैसा नहीं था. उसका चलना, बात करना सबकुछ देर से हुआ. कुछ महीने तो ऐसे ही निकल गए क्योंकि डॉक्टर ने कहा कि कुछ बच्चे देर से सीखते हैं. साथ ही दीवार पर जोर-जोर से अपने पैर भी मारती थी. हम सोचते थे कि उसे दर्द क्यों नहीं होता. बाद में पता चला कि जब तक बहुत तेज दर्द न हो, तो उसे महसूस ही नहीं होता.''
उर्वशी आज 25 साल की हैं और उन्हें बॉर्डर लाइन ऑटिज़्म है. वो अब भी बहुत अच्छी तरह बोल नहीं पाती. उनका दिमाग एक बच्चे की तरह काम करता है और बातों को समझने में दिक्कत होती है.
मीरा बहुरी के लिए यहां तक का सफर आसान नहीं था. हर माता-पिता चाहते हैं कि उनकी औलाद किसी भी दुख-तकलीफ़ से न गुजरे लेकिन जब कुदरत ही एक चुनौती देकर भेजे तो उनके ऊपर एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी आ जाती है.
मीरा ने बताया कि उन्होंने बचपन से ही उर्वशी का मनोचिकित्सक, ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट, स्पीच थेरेपिस्ट और फिजियोथेरेपिस्ट से इलाज कराया. डॉक्टर हर हफ़्ते उसे देखते और प्रोग्राम बताते जिसे मीरा पूरा करती थीं. उन्होंने उर्वशी को किसी तरह साइकिल चलानी भी सिखाई ताकि वह खुद को दूसरे बच्चों की तरह महसूस कर सके.
वो मां जो CBSE में 60% मार्क्स वाली पोस्ट डालकर मशहूर हो गईं
इमेज कॉपीरइटMeera BauhriImage caption अपने परिवार के साथ उर्वशी
वह बताती हैं, ''वो ठीक से अपनी बात नहीं कह पाती थी. उसे क्या चाहिए और क्या तकलीफ़ है ये हम आज भी अंदाज़े से समझते हैं. कभी-कभी तो उसे चोट लग जाती थी और दर्द न होने के कारण वो हमें बताती ही नहीं थी. एक बार उसे पैर में ड्रॉइंग पिन चुभ गई तो वो पैर उठा कर चलने लगी. लेकिन, दर्द न होने के कारण उसने बताया ही नहीं. इसलिए हमें उसका बहुत ज़्यादा ध्यान रखना पड़ता है.''
''उर्वशी को ऑब्सेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर हो गया था वो मुझे बाथरूम तक नहीं जाने देती थी. मुझे उसकी पसंद के ही कपड़े पहनने पड़ते थे फिर एक ही कपड़ा रोज धोकर क्यों न पहनना पड़े. वो मुझे हर वक़्त अपने आसपास देखना चाहती थी. तब हमने इसका भी इलाज कराया तो हालात कुछ ठीक हुए.''
मीरा और उनके पति ने उर्वशी को पढ़ाने की कोशिश भी की. स्कूल भेजा लेकिन बोल न पाने के कारण उसे काफी दिक्कते हुईं. बच्चे परेशान भी करते थे. इसलिए बाद में उन्होंने घर में ही स्पेशल चाइल्ड को पढ़ाने वाले शिक्षक बुलाए. अब तो उर्वशी थोड़ा बहुत पढ़ना और लिखना भी सीख चुकी हैं लेकिन बहुत ज़्यादा कर पाना मुश्किल है.
आज भी मीरा और उनके पति कहीं बाहर घूमने नहीं जा पाते क्योंकि उर्वशी को देखने के लिए कोई नहीं है. लेकिन, फिर भी वो उसे दिल्ली में ही आसपास ले जाते हैं. मीरा को एक बात का दुख भी है कि उसकी परवरिश में वो इतना व्यस्त हो गईं कि छोटे बेटे पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाईं.
लेकिन, इसके बावजूद वो आज अपनी बच्ची के लिए हर वक़्त मौजूद हैं. वह कहती हैं, ''कुदरत ने मुझे उसे दिया है तो वो जिम्मेदारी है. मैं नहीं निभाऊंगी तो कौन आएगा. उसे भी सुरक्षित और अच्छा जीवन जीने का अधिकार है.''
27 साल बाद कोमा से निकली मां, लिया बेटे का नाम
इमेज कॉपीरइटGeet OberoiImage caption नीले कपड़ों में अपनी मां के साथ इंडिया 'हर बच्चे का अपना रास्ता है'
दिल्ली में रहने वालीं 14 साल की इंडिया की मां गीत ऑबरॉय कहती हैं, ''मुझे मेरी बेटी को उसकी मज़बूतियों के साथ आगे बढ़ाना है ना कि उसके कमजोरियों को उभारना है. जिसमें वो बेहतर है, मैं उसमें ही उसे आगे बढ़ाऊंगी.''
इंडिया को डिस्लेक्सिया है और उन्हें याद करने, पढ़ने और लिखने में बचपन से समस्या रही है. उनकी मां गीत एक स्पेशल एजुकेटर हैं और उन्होंने लर्निंग डिसेबिलिटीज में पढ़ाई की है, इसलिए उन्हें जल्दी ही इसका अंदाज़ा हो गया था.
बाद में इंडिया के टीचर्स ने भी बताया कि उसे कुछ भी समझने में दिक्कत होती है. वो दूसरे बच्चों की तरह पढ़ाई नहीं कर पाती.
गीत बताती हैं, ''मैंने और स्कूल वालों ने शुरु में इंतज़ार किया क्योंकि कुछ बच्चे देर से चीजों को समझ पाते हैं और बाद में सामान्य हो जाते हैं. लेकिन, इंडिया के साथ ऐसा नहीं हुआ. वो दूसरी क्लास में भी पढ़ना और लिखना नहीं सीख पाई. तब मैंने उस पर अलग तरह से ध्यान देना शुरू किया.''
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मां-बाप हैं, फिर भी उनके बिना पलते बच्चे
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इमेज कॉपीरइटGeeta Oberoi Image caption इंडिया को घुड़सवारी का शौक है.
इंडिया लगातार स्कूल जाने के बावजूद भी कैट, मैट, रैट जैसे छोटे शब्द तीसरी क्लास में पढ़ पाई जबकि उस उम्र दूसरे बच्चे पूरे चैप्टर पढ़ लेते हैं. वो अपने साथ पढ़ने वाले बच्चों से बहुत पीछे थी. थोड़ी समझ होने पर ये बात उसे भी परेशान करती थी लेकिन गीत उसे हमेशा समझाती रहीं. दूसरे बच्चों का इलाज करने वालीं गीत आज अपनी बेटी को भी उसी बीमारी के साथ देख रही थीं.
गीत बताती हैं, ''मेरी बच्ची को भी ये दिक्कत होगी ये तो कोई नहीं सोचता लेकिन इस बात की राहत थी कि मैं खुद उसका इलाज कर सकती थी. वो पूरी तरह मेरी देखरेख में थी. मैंने खुद उसे पढ़ाना शुरू किया और दूसरे बच्चों के बराबर लाने में ढाई साल का वक़्त लगा. हालांकि, स्कूल ने भी काफी मदद की.''
इंडिया को गणित, विज्ञान और सामाजिक अध्ययन जैसे विषय समझने में परेशानी होती है. इसलिए गीत ने उन्हें वोकेशनल सब्जेक्ट दिलाए जैसे होम साइंस, फूड प्रोडक्शन और आईटी.
वो कहती हैं, ''मुझे नहीं चाहिए कि मेरी बेटी गणित और विज्ञान के रास्ते ही आगे बढ़े और रो-रो कर पढ़ाई पूरी करे. आगे बढ़ने का उसका अपना रास्ता है. वो थ्रो बॉल में अच्छी है. हवा में घोड़ा दौड़ाती है. दूसरे सब्जेक्ट भी उसके अच्छे हैं, तो मैं उसे उसके मनपसंद रास्ते पर ही चलाना चाहती हूं ताकि वो भी दुनिया से कदम से कदम मिला सके.''
इमेज कॉपीरइटManju Sharma Image caption विशाल काम में अपनी मां का हाथ बंटाते हैं. मेरा बेटा अपना भविष्य खुद बनाएगा
यूपी के वैशाली में रहने वालीं मंजु शर्मा के साथ हुए एक हादसे के चलते उनके बच्चे को गर्भ में ही चोट लग गई थी. वो 20 साल की थीं और उनके बेटे विशाल का जन्म होने वाला था. लेकिन, एक दिन मंजु गिर पड़ीं और उनके गर्भाशय में चोट लग गई.
मंजु शर्मा बताती हैं, ''मुझे दो दिनों तक अस्पताल में रखा गया और उसके बाद मेरे बेटे का जन्म हुआ. चोट लगने के कारण उसके सिर में पानी भर गया था और रीढ़ की हड्डी भी बढ़ी हुई थी. तब मुझे अंदाजा हो गया थी कि उसके साथ कोई न कोई दिक्कत होने वाली है.''
''तीन घंटे में तुरंत उसकी रीढ़ की हड्डी का ऑपरेशन किया गया लेकिन उसके बाद भी उसे चलने, बैठने और लेटने में परेशानी रही. पैदा होते ही उसे चुनौतियां मिल गईं. जहां सभी बच्चे एक साल के अंदर चलना सीख जाते हैं, वहीं विशाल को तीसरी क्लास में जाकर चलना आया. मैंने उसके लिए आयुर्वेदिक इलाज का तरीका अपनाया और लगातार मालिश की.''
लेकिन मंजू को विशाल की दिमागी समस्या का अंदाज़ा नहीं था. ये बात उन्हें स्कूल से ज़रिए पता चली.
मंजू कहती हैं, ''स्कूल की टीचर ने बताया कि विशाल कुछ याद करना और पढ़ना तो चाहता है लेकिन कर नहीं पाता. उसके साथ ज़रूर कोई दिक्कत है. अब मेरे सामने उसे इस स्तर पर भी संभालने की चुनौती थी. तब मैं विशाल को स्पेशल चाइल्ड को पढ़ाने वाले टीचर्स के पास ले गई. उन्होंने हमारी बहुत मदद की और विशाल को बहुत कुछ सिखाने में मदद की.''
इमेज कॉपीरइटManju Sharma
वह बताती हैं कि स्पेशल बच्चों के साथ मेहनत तो करनी पड़ती है लेकिन कोशिश करो तो वो किसी काम में पूरा ध्यान लगा देते हैं. उन्हें समझाने और याद कराने के लिए उनके ही तरीके ढूंढने पड़ते हैं. अब विशाल 28 साल के हैं और अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे हैं.
वह 10वीं पास कर चुके हैं और उन्होंने राइटर की मदद से पेपर दिए हैं. मंजू खुद बोल-बोलकर उन्हें सब याद कराती हैं.
मंजू ने अपने बच्चे को अकेले संभाला है और आज विशाल का आईक्यू 50 से 70 पर पहुंच गया है. विशाल को समय देने के लिए वो घर से ही काम करती हैं और खर्च चलाती हैं. वह अपने बेटे को इस लायक बनाना चाहती हैं कि वो नौकरी करके कमा सके. वह विशाल को हॉस्पिटैलिटी के क्षेत्र में भेजना चाहती हैं.
मंजू कहती हैं, ''विशाल खाना बनाने में मेरी मदद करता है. उसे चाय बनानी और सब्जी काटनी आती है. मैं चाहती हूं कि वो हॉस्पिटैलिटी के क्षेत्र में जाए जहां उसके लिए काम करना थोड़ा आसान होगा. वो इन चीजों को अच्छे से समझता है और कर भी लेता है. वो भी एक सामान्य ज़िंदगी जी सकता है.''
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